बेनाम सा ये दर्द ठहर क्यूं नहीं जाता
जो बीत गया है वो गुज़र क्यूं नहीं जाता
देखता हूं मैं उलझी हुई राहों का तमाशा
जाते है जिधर सब मैं उधर क्यूं नहीं जाता
वो एक ही चेहरा तो नहीं है जहां में
जो दूर है
वो दिल से उतर क्यूं नहीं जाता
वो नाम ना जाने कब से, ना चेहरा ना बदन है
वो ख्वाब अगर है तो बिखर क्युं नहीं जाता
सब कुछ तो है क्या ढूंढती रहती है
निगाहें
क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यूं नहीं जाता...!
by, Abhishek Mishra