हाथ उठे हैं मगर

हाथ उठे हैं मगर लब पे दुआ कोई नहीं
की इबादत भी वो जिस की जज़ा कोई नहीं

ये भी वक़्त आना था अब तो गोश हर आवाज़ है
और मेरे बर्बाद-ए-दिल में सदा कोई नहीं

आ के अब तस्लीम कर लें तू नहीं तो मैं सही
कौन मानेगा के हम में बेवफ़ा कोई नहीं

वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्श-ए-पा कोई नहीं

ख़ुद को यूँ महसूर कर बैठा हूँ अपनी ज़ात में
मंज़िलें चारों तरफ़ है रास्ता कोई नहीं

कैसे रास्तों से चले और किस जगह पहुँचे "अभिषेक"
या हुजूम-ए-दोस्ताँ था साथ या कोई नहीं!

contributed by, ABHISHEK

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