कितनी सदियों के इन्तज़ार के बाद
क़ुर्बत-ए-यक-नफ़स नसीब हुई
फिर भी तू चुप उदास कम-आवेज़
ऐ सुलगते हुए चराग़ भड़क
दर्द की रौशनी को चांद बना
कि अभी आंधियों का शोर है तेज़
अप पल मर्ग-ए-जावेदां का सिला
अजनबीयत के ज़हर में मत घोल
मुझको मत देख मगर आँख तो खोल!
contributed by, ABHISHEK
क़ुर्बत-ए-यक-नफ़स नसीब हुई
फिर भी तू चुप उदास कम-आवेज़
ऐ सुलगते हुए चराग़ भड़क
दर्द की रौशनी को चांद बना
कि अभी आंधियों का शोर है तेज़
अप पल मर्ग-ए-जावेदां का सिला
अजनबीयत के ज़हर में मत घोल
मुझको मत देख मगर आँख तो खोल!
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