ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी...

मैं भी चुप हो जाऊँगा बुझती हुई शम्ओं के साथ
और कुछ लम्हे ठहर !

ऐ ज़िंदगी ! ऐ ज़िंदगी !

जब तलक रोशन हैं आँखों के फ़सुर्दा ताक़चे
नील-गूँ होंठों से फूटेगी सदा की रोशनी
जिस्म की गिरती हुई दीवार को थामे हुए
मोम के बुत आतिशी चेहरे,सुलगती मूरतें
मेरी बीनाई की ये मख़्लूक़ ज़िन्दा है अभी
और कुछ लम्हे ठहर !

ऐ ज़िंदगी !

हो तो जाने दे मिरे लफ़्ज़ों को मा’नी से तही
मेरी तहरीरें, धुएँ की रेंगती परछाइयाँ
जिनके पैकर अपनी आवाज़ों से ख़ाली बे-लहू
मह्व हो जाने तो दे यादों से ख़्वाबों की तरह
रुक तो जाएँ आख़िरी साँसों की वहशी आँधियाँ
फिर हटा लेना मिरे माथे से तू भी अपना साथ
मैं भी चुप हो जाऊँगा बुझती हुई शम्ओं के साथ
और कुछ लम्हे ठहर !

ऐ ज़िंदगी !

contributed by, ABHISHEK K. MISHRA

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