ना समझो तकदीर

ना समझो तकदीर की इनायत हो गयी,
हमें ही कुछ जीने की आदत हो गयी...

जिनके सायें से बचा करते थे,
उन दरख्तों की धूप में इबादत हो गयी...

सलामती की रकात ना कभी पढ़ी मैंने,
इस वजह ही शायद हिफाज़त हो गयी...

अंगडाई भी ले तो दोहरायें दुनिया,
जाने कब ये ज़िन्दगी आयत हो गयी...

contributed by, Poetry World

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