रात के मुसाफ़िर है

रात के मुसाफ़िर है, दम ले ना सकेंगे,
सहर के होने तक, मुसलसल चलते रहेंगे,

माना कि, सर्द सिरहन, तड़पन सी है रूह-ए-सफ़र में,
पर सुकून-ऐ-मंजिल भी हासिल होगा, सफ़र के ज़रस में,

माना कि स्याह रात है, कि बस रूकती ही नहीं,
उस पर "ज़िन्दगी" है, कि बस थमती ही नहीं,

आएगी सहर, मुसाफ़िर-ए-सफ़र,
भर ले दम इक दफ़ा फिर,
रख यकीं कि आज तू ही है, तेरा ख़ुद "हमसफ़र" ।।

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