जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जानता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के
फौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के...!
contributed by, ABHISHEK