क्या ऐसे कम-सुख़न[१] से कोई गुफ़्तगू[२] करे
जो मुस्तक़िल[३] सुकूत[४] से दिल को लहू करे
अब तो हमें भी तर्क-ए-मरासिम[५] का दुख नहीं
पर दिल ये चाहता है के आगाज़[६] तू करे
तेरे बग़ैर भी तो ग़नीमत[७] है ज़िन्दगी
खुद को गँवा के कौन तेरी जुस्तजू करे
अब तो ये आरज़ू है कि वो जख़्म[८] खाइये
ता-ज़िन्दगी[९] ये दिल न कोई आरज़ू करे
तुझ को भुला के दिल है वो शर्मिंदा-ए-नज़र[१०]
अब कोई हादिसा[११] ही तेरे रु-ब-रू [१२]करे