क्यूँ जल गया

क्यूँ जल गया न ताब-ए रुख़-ए यार देख कर
जलता हूं अपनी ताक़त-ए दीदार देख कर

आतीश-परसत कहते हैं अहल-ए जहां मुझे
सर-गरम-ए नालहहा-ए शरर-बार देख कर

कया आबरू-ए `इशक़ जहां `आम हो जफ़ा
रुकता हूं तुम को बे-सबब आज़ार देख कर

आता है मेरे क़तल को पर जोश-ए रशक से
मरता हूं उस के हाथ में तलवार देख कर

साबीत हुआ है गरदन-ए मीना पह ख़ून-ए ख़लक़
लरज़े है मौज-ए मै तीरी रफ़तार देख कर

वा हसरतो की यार ने खेंचा सीतम से हाथ
हम को हरीस-ए लज़ज़त-ए आज़ार देख कर

बके जाते हैं हम आप मता`-ए सुख़न के साथ
लेकीन `अयार-ए तब`-ए ख़रीदार देख कर

ज़ुननार बांध सुबहह-ए सद-दानह तोड़ डाल
रहरौ चले है राह को हमवार देख कर

इन आब्लो से पांव के घबरा गया था मैं
जी ख़वुश हुआ है राह को पुर-ख़ार देख कर

कया बद-गुमां है मुझ से की आईने में मीरे
तूती का `अकस समझे है ज़नगार देख कर

गीरानी थी हम पह बरक़-ए तजलली न तूर पर
देते हैं बादह ज़रफ़-ए क़दह-ख़वार देख कर

सर फोड़ना वह गालीब-ए शोरीदह-हाल का
याद आ गया मुझे तीरी दीवार देख कर!



contributed by, Abhishek



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