इधर से

इधर से अभी उठकर जो गया है

हमारी ख़ाक पर भी रो गया है


मसाइब और थे पर दिल का जाना

अजब इक सानीहा सा हो गया है


मुकामीर-खाना-ऐ-आफाक वो है

के जो आया है याँ कुछ खो गया है


सरहाने " अभिषेक " के आहिस्ता बोलो

अभी टुक रोते रोते सो गया है॥

contributed by, Abhishek

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