हम सादा ही ऐसे थे

हम सादा ही ऐसे थे, की यूँ ही पज़ीराई
जिस बार ख़िज़ाँ आई, समझे कि बहार आई

आशोब-ए-नज़र् से की हमने चमन-आराई
जो शय भी नज़र आई गुल-रंग नज़र आई

उम्मीद-ए-तलत्तुफ़ में रंजीदा रहे दोनों
तू और तेरी महफ़िल मैं और मेरी तनहाई

वाँ मिल्लत-ए-बुल-हवसाँ और शोर-ए-वफ़ाजुई
याँ ख़िल्वत-ए-कम-सुख़नाँ और लज़्ज़त-ए-रुसवाई

यक-जान न हो सकिये अंजान्न बन सकिये
यों टूट गई दिल में शमशीर-ए-शनासाई

इस तन की तरफ़ देखो जो क़त्ल-गह-ए-दिल है
क्या रक्खा है मक़्तल में ऐ चश्म-ए-तमाशाई!

contributed by, ABHISHEK

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