अब के बरस भी...

लब तिश्न-ओ-नोमीद हैं हम अब के बरस भी
ऐ ठहरे हुए अब्रे-करम अब के बरस भी

कुछ भी हो गुलिस्ताँ में मगर कुंजे- चमन में
हैं दूर बहारों के क़दम अब के बरस भी

ऐ शेख़-करम ! देख कि बा-वस्फ़े-चराग़ाँ
तीरा है दरो-बामे-हरम अब के बरस भी

ऐ दिले-ज़दगान मना ख़ैर, हैं नाज़ाँ
पिंदारे-ख़ुदाई पे सनम अब के बरस भी

पहले भी क़यामत थी सितमकारी-ए-अय्याम
हैं कुश्त-ए-ग़म कुश्त-ए-ग़म अब के बरस भी

लहराएँगे होंठों पे दिखावे के तबस्सुम
होगा ये नज़ारा कोई दम अब के बरस भी

हो जाएगा हर ज़ख़्मे-कुहन फिर से नुमायाँ
रोएगा लहू दीद-ए-नम अबके बरस भी

पहले की तरह होंगे तही जामे-सिफ़ाली
छलकेगा हर इक साग़रे-जम अब के बरस भी

मक़्तल में नज़र आएँगे पा-बस्त-ए-ज़ंजीर
अहले-ज़रे-अहले-क़लम अब के बरस भी...!
contributed by, ABHISHEK

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