घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बगैर
जानेगा अब भी तू न मेरा घर कहे बगैर
कहते है जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुखन
जानू किसी के दिल की मैं क्यूँ कर कहे बगैर
काम उस से पड़ा है की जिस का जहाँ में
लेवे न कोई नाम सितमगर कहे बगैर
जी में ही कुछ नहीं है हमारे वरनाह हम
सर जाए या रहे ना रहे पर कहे बगैर
छोडूंगा मैं न उस बुत-ए-काफिर का पुंजा
छोड़े ना खल्क गो मुझे काफिर कहे बगैर
मकसद है नाज़-ओ-गम्जः वले गुफ्तगू में काम
चलता नहीं दशनाह-ओ-खंज़र कहे बगैर
हर चन्द हो मुशाहदः-ए-हक की गुफ्तगू
बनती नहीं है बादाह-ओ-सागर कहे बगैर
बेहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इल्तिफात
सुनता नहीं हूँ बात मुक़र्रर कहे बगैर
ग़ालिब ना कर हुज़ूर में तू बार बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उनपर कहे बगैर !
contributed by, Abhishek