उस रोज़ जब साहिल के क़रीब छोड़ लौटते सूरज का हाथ थामेँ,
तेज क़दमोँ से आगे की ज़ानिब बढ़ती चली जा रही थी,
मैँ चुपचाप उस मंज़र को देर तलक देखता रहा,
मटियाले अंधेरोँ से रस्साकसी करती,
मेरी ऊम्मीदेँ बदहवास सिसकियाँ भर रही थीँ,
चंद लम्होँ मेँ हीँ तुम ओझल हो चुकी थी,
उस शब लगा मैँ वहम मेँ जी रहा था,
वक़्त को भला कोई रोक सकता है क्या !